प्रकार 1
महामृत्युंजय मंत्र - यज्ञ
इस मंत्र के जप में ध्यान परमावश्यक है। शिवपुराण में यह ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है:
हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्धृत्य तोयं शिरः सिंचन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वांके सकुम्भौ करौ । अक्षस्रङ्मृगहस्तमम्बुजगतं मूर्धस्थचन्द्रस्रवत् पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजं त्र्यक्षं च मृत्युंजयम् ॥
"जो अपने दो करकमलों में रखे हुए दो कलशों से जल निकालकर उनसे ऊपरवाले दो हाथों द्वारा अपने मस्तक को सींचते हैं। अन्य दो हाथों में दो घड़े लिए उन्हें अपने गोद में रखे हुए हैं तथा शेष दो हाथों में रुद्राक्ष एवं मृगमुद्रा धारण करते हैं, कमलासन पर बैठे हैं, सिर पर स्थित चन्द्रमा से निरंतर झरते हुए अमृत से जिनका सारा शरीर भीगा हुआ है तथा जो तीन नेत्र धारण करनेवाले हैं उन भगवान मृत्युंजय, जिनके साथ गिरिराजनंदिनी उमा भी विराजमान हैं, उनका मैं भजन (चिंतन) करता हूँ।' (सती खंड : ३८.२४)
इस प्रकार ध्यान करके रुद्राक्षमाला से महामृत्युंजय मंत्र का निश्चित संख्या में जप करना चाहिये।
मंत्रजप प्रारंभ करने से पूर्व हाथ में जल लेकर निम्न श्लोक पढ़कर संकल्प करें
ॐ अस्य श्रीमहामृत्युञ्जयमंत्रस्य वसिष्ठ ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।
श्री मृत्युञ्जयरुद्रो देवता।
हौं बीजं। जूँ शक्तिः।
सः कीलकम्।
यजमान यूजमानस्य (श्रीमति जिगिशास्य) आयु-आरोग्य-यश-कीर्ति-पुष्टिवृद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
जय हेतु महामृत्युंजय मंत्र -
ॐ हौं जूं सः ।
ॐ भूर्भुवः स्वः ।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
ॐ । स्वः भुवः भूः
ॐ सः जूँ हौं। .... ॐ
मंत्रजप की पूर्वनिर्धारित संख्या पूर्ण होने पर उस संख्या की दशांश संख्या में महामृत्युंजय मंत्र के अंत में 'स्वाहा' शब्द जोड़कर आहुतियाँ देते हुए हवन करें।
अपना संकल्प अर्पण करने हेतु अंत में हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र बोलें
"अनेन कृतेन भगवान महारुद्रः प्रीयतां न मम।"
प्रकार 2
ॐ मृत्युंजय महादेव त्राहिमां शरणागतम ।
जन्म मृत्यु जरा व्याधि पीड़ितं कर्म बंधनै:।।
ॐ हौं जूं सः भूर्भुवः स्वः।
ॐ त्र्यम्बकं स्यजा महेसुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्। उर्व्वारूकमिवबंधनान्न मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्
ॐ स्वः भुवः भूः
ॐ सः जूं हौं .... ॐ
प्रकार 3
त्र्य॑म्बकं य्यजामहे सुगन्धिं पु॑ष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमि॑व बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मुक्षीय माऽमृता॑त् ।।१।।
ये ते॑ स॒हस्र॑म युतं पाशा मृ॒त्यो मर्त्याय हन्त॑वे ।
तान् - य॒ज्ञस्य॑ मायया सर्वा नव॑ यजामहे ।।२।।
मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॑ मृ॒त्यवे स्वाहा॑ S(विभक्तरूप अंग संधि )॥३॥
तीन प्रकार के श्लोक के प्रावधान होने के बावजूद भी हाथों की परिभाषा, यज्ञ के स्थान के समय जो वही सत्कार्य होता है, वह निश्चित तौर पर अलग ही होता है। वह हाथ की परिभाषा में आहुति का हवी द्रव्य का होम कैसे करना है, किस चीज से करना हे, वह तो रूबरू आचार्य ही समझा सकते हैं। क्योंकि हर आदमी की जिजीविषा अलग होती हे।
जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद
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