Wednesday 2 December 2020

अग्निपुराण एकाक्षर कोष महिमा

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं तुम्हें 'एकाक्षराभिधान' तथा मातृकाओं के नाम एवं मंत्र बतलाता है। सुनो-'अ' नाम है भगवान्विष्णुका।"अनिषेध अर्थमें भी आता है। 

'आ' ब्रह्माजीका बोध कराता है। वाक्य-प्रयोगमें भी उसका उपयोग होता है। 'सीमा' अर्थ में 'आ' अव्ययपद है। क्रोध और पीड़ा अर्थमें भी उसका प्रयोग किया जाता है। 

'इ' काम-अर्थमें प्रयुक्त होता है। "रति और लक्ष्मोके अर्थ में आता है।

'उ' शिवका वाचक है।

"ऊ" रक्षक आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। 
"ऋ' शब्दका बोधक है। '"ऋ" अदितिके अर्थमें प्रयुक्त होता है।

 "ल+र+उ= लरू (तीन इकट्ठा लिखा नही जा रहा है।)
दोनों अक्षर दिति एवं कुमार कार्तिकेयके बोधक
हैं। 

'ए' का अर्थ है-देवी। 'ऐ' योगिनीका वाचक है।

'ओ' ब्रह्माजीका और 'औ' महादेवजीका
बोध करानेवाला है।

"अं" का प्रयोग काम अर्थमें होता है।

.. 'अः" प्रशस्त (श्रेष्ठ)-का वाचक है।

'क' ब्रह्मा आदिके अर्थमें आता है। 'कु' कुत्तिात
(निन्दित) अर्थमें प्रयुक्त होता है।

"खं''-यह पद शून्य, इन्द्रिय और मुखका वाचक है। 

'ग' अक्षर यदि पुलिंग ग में हो तो गन्धर्व, गणेश तथा गायकका वाचक होता है। नपुंसकलिङ्ग 'ग' गीत अर्थ में प्रयुक्त होता है। 

'घ' घण्टा तथा करधनीके अग्रभागके अर्थ में आता है। 'ताडन' अर्थमें भी "घ' आता है। 

"ङ" अक्षर विषय, स्पृहा तथा भैरवका वाचक है। 

S मतलब अव्यय संधि, निहारिका, संकलन से है।

'च' दुर्जन तथा निर्मल- अर्थमें प्रयुक्त होता है। 

"छ" का अर्थ छेदन है। उसका मतलब स्वच्छ भी है।

'जि' विजेयके अर्थमें आता है। 

'ज' पद गीतका बाचक है। मतलब किसका होना है ही है, तय है, पक्का वजूद से है।

'झ' का अर्थ प्रशस्त, "अं आधा 'का बल  ओर "ट" का गायन है। ट को सूक्ष्म सजीव पिंड से भी जोड़ा है।

ठ का शून्य, शिव तथा उदबन्धन है।'

ड अक्षर रुद्र ध्वनि या त्रास के अर्थ में आता है।

उसकी आवाजके अर्थ में 'ढ'का प्रयोग होता है। ढ को कहि पर आंख भी कहा है।

'ब' का  और निष्कर्ष एवं निभयके अर्थ में आता


'त का अर्थ है-तस्कर (चौर) और सूभरकी
पूँछ। त को समतल पर किसीका होना भी हो सकता है।


'च' भक्षणके और 'द' छेदन, धारण तथा
शोभनके अर्थ आता है। "

" पाता (धारण
करनेवाले या ब्रह्माजी) तथा पुस्तूर ( धतूरे)
अर्थमें प्रयुक्त होता है।

 'न' का अर्थ समूह और सुगत (बुद्ध) है। 

"प" उपवनका और 'यू:' शंशावातका बोधक है।

'फुकने तथा निष्पल होनेके अर्थ आता है। 

'बि' पक्षी तथा 'भ' वाराओंका बोधक है। 

"मा'का अर्थ है-लक्ष्मी, मान और माता ।

 'ब' बोग, याता (यात्री अथवा दवादिन) तथा 'रिण' नामक पक्षके अर्थमें आता

'र'का अर्थ है-अग्नि, बल और इन्द्र।

ल'का विधाता, "व" का विश्लेषण (बियोग या
बिलगाव) और, वरुण तथा "श' का अर्थ शायन
एवं सुख है।

"प" का अर्थ श्रेष्ठ, "स" का परीक्षा,
'सा' का लक्ष्मी, "स" का बाल, "ह" का धारण
तथा पद और 'क' का क्षेत्र, अक्षर, नृसिंह, हरि,
क्षेत्र तथा पालक । 

एकाक्षामन्त्र देवतारूप होता है। वह भोग और मोक्ष देनेवाला है। 

यह सब विद्याभोंको देनेवाला मन्त्र है। 

अकार आदि नौ अक्षर भी मन्त्र है, उन्हें उत्तम मातृका-मत्र  कहते हैं। 

इन मन्बौंको एक कमलके दलमें स्थापित करके इनकी पूजा करे। इनमें नौ दुर्गाओंकी भी पूजा की जाती है।

भगवती, कात्यायनी, कौशिकी, चण्डिका, प्रचण्डा ||
सुनाथिका, उपमा, पार्वती तथा दुर्गाका पूजन
करना चाहिये। 

"ॐ चण्डिकायै विहे भगवत्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्'- 

यह दुर्गा-मन्त्र षडङ्ग आदिके क्रमसे पूजन करना उचित है।

अजिता, अपराजिता, जया, विजया, कात्यायनी, भद्रकाली, महला, सिदि, रेवती, सिद्ध आदि बटुक तथा एकपाद, भीमरूप, हेतुक, कापालिकका पूजन करे। मध्यभागमें नौ दिक्पालौकी पूजा करनी चाहिये। मन्त्रार्थको सिद्धि के लिये 'ह्रीं दुर्ग रक्षिणि स्वाहा'-इस मन्त्रका जप करे। 

गौरीकी पूजा करें; धर्म आदिका, स्कन्द आदिका तथा
शक्तियोंका बजन करे। प्रजा, जानक्रिया, वाचा,
कागीशी, ज्वालिनी वामा, ज्येष्ठा, रोहा, गौरी, ही
तथा पुरस्सरा देवीका'ही: सः महागौरि कविते
स्वाहा'-

इम ममंत्र  महागौरीका तथा जानाशक्ति, क्रियाशक्ति, सुभगा, ललिता, कामिनी, काममाला और इन्द्रादि शक्तियोंका पूजन भी एकाक्षर मन्त्रोंसे होता है। गणेश-पूजनके लिये गं स्वाहा' 'यह मूलमन्त्र है। अथवा-'गं गणपतये नमः ।' से भी उनकी पूजा होती है। 

रक्त, शुक्ल, दन्त, | नेत्र, परशु और मोदक-
यह "पाहा' कहा गया है। गन्धोल्काय नमः।" से क्रमशः गन्ध आदि निवेदन करे। गज, महागणपति तथा महोल्क भी पूजनके योग्य है। 'कूष्माण्डाय, एकदन्ताय, त्रिपुरान्तकाय, श्यामदनायिकटाहासाय, लम्बनासाननाय, पाप, मेघोल्काय, प्रमोस्काय, विकटॉकटाब, गजेन्द्रगमनाय, भुजगेन्द्रनाराय, शशाधराय, गणाधिपतये स्वाहा।'- 

मन्त्रोंक आदिमें 'क' आदि एकाक्षर बीज-मन्त्र लगाये और अन्त में 'नमः' एवं 'स्वाहा' शब्दका प्रयोग करे। 

फिर इन्हीं मन्त्रीद्वारा तिलोंसे होम आदि करके मन्नार्थभूत
देवताका पूजन करे। अथवा दिरेफ, हिर्मुख एवं पक्ष आदि पृथक्-पृथक् मन्त्र हो सकते हैं। अब कुमार कार्तिकेयजीने कात्यायनको जिसका उपदेश
किया था, वह व्याकरण बतलाऊँगा ॥११-२८ ॥


भूलचूक लेनिदेनि, हो तो माफी स्वीकार्य। सॉफ्टवेर से ट्रांसलेट किया है, इस लिये।

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद

आजकी तारिख स्पेशल है

हिंदी गुजराती इकट्ठा कर तो

दो बारा बीस????







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